पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४२८

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कहेगी शतद्रु-शत सगरो की साक्षिणी, सिक्ख थे सजीव- स्वत्व रक्षा मे प्रवुद्ध थे। जीना जानते थे, मरने को मानते थे सिक्ख । किन्तु आज उनकी अतीत वीर गाथा हुई- जीत होती जिसकी वही है आज हारा हुआ।" "ऊजस्वित रक्त और उमङ्ग भरा मन था जिन युवको के मणिबन्धो मे अवन्ध वल इतना भरा था जो उलटता शतनियो को। गोले जिनके थे गेंद अग्निमयी क्रीडा थी रक्त की नदी मे सिर ऊँचा छाती सीधी कर तैरते थे। वीर पञ्चनद के सपूत मातृभूमि के सो गये प्रतारणा की थपकी लगी उन्हे छल-बलिवेदी पर आज सब सो गये । रूप भरी, आशा भरी, यौवन अधीर भरो, पुतली प्रणयिनी का बाहुपाश खोलकर, दूध भरी दूध सी दुलार भरी मा की गोद, सूनी कर सो गये। हुआ है सूना पञ्चनद। भिक्षा नही मागता हूँ आज इन प्राणो को क्योकि, प्राण जिसका आहार, वही इसकी रखवाली आप करता है, महाकाल ही, लहर ॥३७७॥