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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४३०

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पेशोला की प्रतिध्वनि सरण करुण बिम्ब वह निधू म भस्म रहित ज्वलन पिण्ड । विकल विवतनो से विरल प्रवतनो म श्रमित नमित सा- पश्चिम के व्योम मे है आज निरवलम्ब सा। आहुतिया विश्व की अजस्र ले लुटाता रहा- सतत सहस्त्र कर माला से- तेज ओज बल जो वदान्यता क्दम्ब-सा । पेशोला को उमिया है शान्त, धनी छाया मे- तट तरु है चित्रित तरल चित्रसारी में। झोपडे खडे है वने शिल्प ये विषाद के दग्ध अवसाद से। धूसर जल्द खड भट पडे हैं , जैसे विजन अन त में। कालिमा बिखरती है मन्ध्या के क्लक सी , दुन्दुभि-मृदङ्ग-तूर्य शान्त स्तब्ध, मौन है। फिर भी पुकार सी है गूंज रही व्योम में- लहर ।।३७९॥