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प्रलय की छाया थवे हुए दिन के निराशा भरे जीवन को सन्ध्या है आज भी तो धूसर क्षितिज मे। और उम दिन तो, निजन जलधिन्वेला रागमयी सध्या से- सीखती थी सौरभ से भरी रग रलियां । दूरागत वशी रव- गूंजता था धीवरो की छोटी छोटी नावो से । मेरे उस यौवन के मालती मुकुल मे । रध्र सोजती थी, रजनी की नीली किरणें उसे उपसाने वो हंसाने को। पागल हुई में अपनी ही मृदुगन्ध से-- पस्तूरी मृग जैसी। पश्चिम जलधि में, मेगे रहरीरी नोलो अलगावली समान रहरें उठनी पी मानो नूमने को मुझसो, और साम रेना था ममीर मुये बर। 1 » 3.0)