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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४३३

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नृत्यशीला शशव को स्फूर्तियाँ दौड कर दूर जा खडी हो हंसने लगी। मेरे तो, चरण हुए थे विजडित मधु भार मे । हँसती अनग-बालिकाएँ अन्तरिक्ष मे मेरी उस क्रीडा के मधु अभिषेक मे नत शिर देख मुझे। कमनीयता थी जो समस्त गुजरात की हुई एकत्र इस मेरो अगलतिका म । पलकें मदिर भार से थी झुकी पडती । नन्दन की शत शत दिव्य कुसुम-कुतला अप्सराएँ मानो वे सुगन्ध की पुतलिया आ आकर च्म रही अरुण अधर मेरा जिसमे स्वय ही मुस्कान खिल पडती। नूपुरो की झनकार घुली मिली जाती थी चरण अलक्तक को लाली से जैसे अतरिक्ष की अरुणिमा पी रही दिगन्त व्यापी सन्ध्या सगीत को। क्तिनी मादकता थी लेने लगी झपकी मै सुख रजनी को विचम्म-कथा सुनती, जिसमे थी आशा अभिलाषा से भरी थी जो कामना के कमनीय मृदुल प्रमोद मे जीवन सुरा की वह पहली ही प्याली थी।" आखें खुली, देखा मैने चरणा मे लोटती थी विश्व की विभव गशि, और थे प्रणत वही गुज्जर महीप भी । वह एक सन्ध्या थी।" प्रमाद वाङ्गमय ॥ ३८२॥