पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४३४

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"श्यामा सृष्टि युवती थी तारक खचित नीलपट परिधान था अखिल अनन्त मे चमक रही थी लालसा को दीप्त मणिया- ज्योतिमयी, हासमयी, विकल विलासमयी बहती थी धीरे धीरे सरिता उस मधु यामिनी मे मदकल मलय पवन ले ले फूलो से मधुर मरन्द-बिन्दु उसमे मिलाता था। चादनी के अचल मे। हरा भरा पुलिन अलस नीद ले रहा। सृष्टि के रहस्य सी परखने को मुझको तारिकाएँ झाकती थी। शत शतदलो की मुद्रित मधुर गन्ध भीनी भीनी रोम में बहाती लावण्य धारा। स्मर शशि किरणे, स्पश करती थी इस चन्द्रकान्त मणि को स्निग्वता विछलती थी जिस मेरे अग पर । अनुराग पूण था हृदय उपहार मे गुजरेश पावडे बिछाते रहे पलको के, तिरते थे-- मेरी अंगडाइयो की रहगे मे पीते मकरन्द थे- मेरे इस अधखिले आनन सरोज का कैमा खिली म्वण मल्लिया को सुरभित वरलरी सी गुज्जर के थाले म मग्न्द वर्षा करती में ।' स्तिना सोहाग था, अनुराग था? "और परिपतन वह क्षितिज पटी को आन्दोरित करती हुई नीले मेघ मारा मी रहर ।।३८३॥