सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

नियति-नटी थी आइ सहसा गगन मे तडित विलास सी नचाती भौहे अपनी।" "पावर-सरोवर मे अवभृथ स्नान था आम-सम्मान-यज्ञ की वह पूर्णाहुति सुना-जिस दिन पद्मिनी का जल मरना सती के पवित्र आत्म गौरव को पुण्य-गाथा गूंज उठी भारत के कोने कोने जिस दिन, उनत हुआ था भाल महिला-महत्त्व का। दृप्त मेवाड के पविन बलिदान का कजित आलोक आख सोलता था सब की। सोचने लगी थी कुल-बधुएँ, कुमारिकाएँ जीवन का अपने भविष्य नये सिर से, उसी दिन बोधने लगी थी विषमय परतता। देव-मन्दिरो को मूक घण्टा ध्वनि व्यग्य करती थी जब दीन सकेत से जाग उठी जीवन की लाज भरी निद्रा से । में भी थी कमला, रूप रानी गुजरात की। सोचती थी- पद्मिनी जली थी स्वय किन्तु मै जलाऊंगो- वह दावानल ज्वाला जिसमे सुलतान जले। देखे तो प्रचण्ड म्प ज्वाला सी धधक्ती मुझको सजीव वह अपने विरद्ध । आह । कैसी वह स्पर्द्धा थी? स्पद्धा थी रूप की पद्मिनी की वाह्य रूप रेखा चाहे तुच्छ थी प्रसाद वाङ्गमय ।। ३८४ ॥