पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४३६

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? मेरे इस साँचे से ढके हुए शरीर के सन्मुख नगण्य थी। देखकर मुकुर, पवित्र चिन पधिनी का तुलना कर उससे, मैने समझा था यहो। वह अतिरन्जित सी तुलिका चितेरी की फिर भी कुछ कम थी। किन्तु था हृदय कहा वैसा दिव्य अपनी कमी थी इतरा चली हृदय की लघुता चली थी माप करने महत्त्व की। 'अभिनय आरम्भ हुआ अन्हलवाडा मे अनल चक्र ध्मा फिर चिर अनुगत सौन्दर्य के समादर में गुज्जरेश मेरी उन इगिता मे नाच उठे। नारी के नयन । निगुणात्मक ये सन्निपात क्सिको प्रमत नही करते धैय क्सिका नही हरते ये? वही अस्त्र मेरा था। एक झिटके में आज गुजर स्वतन सास लेता था सजीव हो । क्रोध सुलतान का दग्ध करने लगा दावानल बन कर हरा भरा कानन प्रफुरल गुजरात का। बालका को करण पुकारे, और वृद्धो की आतवाणी, क्रदन रमणियो का, भैरव मगीत बना, ताण्डव-नृत्य सा होने लगा गुजर मे। अट्टहास करती सजीव उत्लास से फांद पडी में भी उस देश की विपत्ति मे। वही कमला हू मै । लहर ।। ३८५॥ २५