पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४३७

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. देख चिर सङ्गिनी रणाङ्गण मे, रङ्ग मे , मेरे वीर पति आह क्तिने प्रसन थे वाधा, विघ्न, आपदाएं, अपनी ही क्षुद्रता मे टलती-विचलती। हंसते वे देख मुझे में भी स्मित करती। किन्तु शक्ति कितनी थी उस कृत्रिमता में ? सवल बचा न जब कुछ भी स्वदेश में छोडना पडा ही उसे। निर्वासित हम दानो खाजते शरण थे, किन्तु दुर्भाग्य पीछा करने मे आगे था। "वह दुपहरी थी, लू स झुलसाने वाली, प्यास से जलाने वालो। थके मो रहे थे तरुछाया म हम दोनो तुर्को का एक दल आया झझावात सा। मेरे गुज्जरेश । आज क्सि मुख से कहू सच्चे राजपूत थे, वह खड्ग लीला खडी देखती रही मैं वही गत प्रत्यागत मे और प्रत्यावतन मे दूर वे चले गये, और हुई बन्दी में। वाह री नियति । उस उज्ज्वल आकाशम पद्मिनी की प्रतिकृति सी किरणो मे बन कर व्यङ्ग हास करती थी। एक क्षण भ्रम के भुलावे म डाल कर आज भी नचाता वही, आज सोचती हू जैसे पद्मिनी थी कहती- "अनुकरण कर मेरा' समझ सकीन में। प्रसाद वाङ्गमय । ३८६ ॥