पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४४

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की समन्वयभूमि या सयोजक विन्दु है । अमला चिच्छक्ति, प्रेमाला किंवा पर प्रमास्पदीभूता कामरला के सन्देश अपने 'जगमगल सगीत' के मा यम से देती है । ऐमे सयोजक विन्दु का क्या भिन्न प्रस्थानी म भिन्न नामो मे हुआ है। चित् अचित के सयोजक विन्दु को द्वेत वादी शैव-प्रस्था। महामाया कहत है वैष्णव-परम्परा में यह अप्राकृत विशुद्ध-सत्व है योग (पातजल) म प्रकृष्ट मत्व यही है बार महायान का नाविमत्व भी यही है आगम को अभेद-परम्परा इसी का कामविन्दु बहती है, और कामायनी काम को बैदवी सतति है 'कामगोरजा कामायनी श्रद्धाना- मपिका' के संप में सायण द्वारा इसका उरलेख इसके ऐतिह्य-कथन म पर्याप्त है। क्रान्ति की वृत्ति वडी व्यापर है, वह मानव-ममाज के ऊपरी धरातल पर ही नहीं, चैतम-पीठिका पर ही नहीं अपितु, प्रकृति के अय स्तर पर भी सक्रिय रह परिपत्तन और विकास की गति अग्रसर करती है वस्तुत विकासात्मक परिवतन इसके पीछे सकरप भत रहता है। सुतराम, प्रकति का यह अतजात झान्ति तत्त्व अपनी सहज सक्रियता म अतिचारी देवा को अनायास ही समाप्त कर देता है। प्रतिकरण और अतिचरण की तीव्रता के तारतम्य पर कान्ति की प्रखरता निभर करती है और वही उसकी उपलब्धियो को भी स्थिर करती है। “बढने लगा विलाम वेग सा वह अति भैरव जलसघात" और फिर "देव-दम्भ के महामेव मे सब कुछ ही बन गया हविष्य" क्योकि "प्रकृति रही दुर्जेय पराजित हम सब थे भूरे मद म" } आगे चरकर भी मनु के अतिचरण के प्रतिकार मे " तरिक्ष म महाशक्ति हुकार कर उठी" और प्रतिकार के लिये रुद्र को नु' दिया (मह रुद्राय धनुरातनोमि ब्रह्महिपे शरवे हन्त का उ~देवीसूक्त ऋग्वेद) । देवयुग का अवशिष्ट प्राणो मनु बाहर से सब कुछ सोकर भी सस्कार-सम्पदा संजोये रहा “मेरा सब कुछ क्रोध मोह के उपादान से गठित हुआ' किन्तु सारम्बत प्रदेश की प्राणिक क्रान्ति के आन्तर उन अतिचारी देव-सस्वारो की भी सवथा पराजय हो जाती है और तब मनु आदिम सवहारा रूप मे बोल उठते हैं--"मैं इस निजन तट म अधोर, सहभूष व्यथा तीसा समीर" "मै शून्य बना मत्ता खोकर"। यह सवहारा रूप ही उसे आगे चल कर मिलने वाली अनुग्रह-सम्पदा की प्रतिज्ञा है-- "यस्यानुग्रहमिच्छामि तस्य सवहाम्यहम्"। शून्य असत् और अन्धकार को जैसी तीखी दशा रहती है वैमा हो प्राक्पयन ॥५१॥