पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४६४

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"ओ चिता की पहली रेखा, अरी विश्व वन को व्याली, ज्वालामुखी स्फोट के भीषण, प्रथम कप सी मतवालो। हे अभाव की चपल बालिके, री ललाट की खल लेखा। हरी भरी मी दौड-धूप, ओ जल-माया को चल - रेखा। इस ग्रह कक्षा की हलचलरी तरल गरल को लघु लहरी, जरा अमर जीवन की, और न कुछ सुनने वाली, बहरी । अरी व्याधि को सूत्र-धारिणी । अरी आधि, मधुमय 'अभिशाप हृदय-गगन मे धूमकेतु सी, पुण्य सृष्टि मे सुन्दर पाप । 1 मनन करावेगी तू कितना? उस निश्चित जाति का जीव, अमर मरेगा क्या? तू कितनी गहरी डाल रही है नीव । चिन्ता॥४१५॥