सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

आह । घिरेगी हृदय लहलहे खेतो पर करका धन सी, छिपी रहेगी अतरतम मे सव के तू निगूढ धन सी। नाम। बुद्धि, मनीपा, मति, आशा, चिंता तेरे है क्तिने अरी पाप है तू, जा, चल, जा यहा नही कुछ तेरा काम विस्मृति आ, अवसाद घेर ले, नीरवते । बस चुप कर दे, चेतनता चल जा, जडता से आज शून्य मेरा भर दे।" "चिंता परता हूँ में जितनी उम अतीत की, उस सुख की, उतनी ही बनत मे बनती जाती रेखायें दुग्न की। प्रसाद वाङ्गमय ॥४१६॥