पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

आह सर्ग के अग्रदूत | तुम असफल हुए, विलीन हुए, भक्षक या रक्षक, जो समझो, केवल अपने मीन हुए। नत्तन, अरी आँधियो। ओ बिजली की दिवा रात्रि तेरा उसी वासना को उपासना, तेरा प्रत्यावत्तन। वह मणिन्दीपो के अधकारमय अरे निराशापूण भविष्य । देव - दम्भ के महा मेध में सब कुछ ही बन गया हविष्य । अरे अमरता के चमकीले तेरे वे जयनाद, कांप रहे हैं आज प्रतिध्वनि बन कर मानो दोन विपाद । पुतलो । प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित हम सब थे भूले मद मे, भोरे थे, हाँ तिरते वल सर विलासिता के नद मे। चिन्ता ॥४१७॥