पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

वे सब डूबे, डूबा उनका विभव, बन गया पारावार, उमड रहा है देव सुखो पर दुख जलधि का नाद अपार ।" "वह उन्मत्त विलास हुआ क्या ? स्वप्न रहा या छलना थी। देव सष्टि की सुख विभावरी ताराओ की कलना थी। चलते थे सुरभित अञ्चल से जीवन के मधुमय निश्वास, कोलाहल मे मुखरित होता देव जाति का सुख-विश्वास । सुख, केवल सुख का वह सग्रह, केन्द्रीभूत हुआ छायापथ मे नव तुपार का सघन मिलन होता जितना। इतना, प्रसाद वाङ्गमय ॥४१८॥