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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४६८

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सब कुछ थे स्वायत्त, विश्व के बल, वैभव, आनद अपार, उद्वेलित लहरो सा होता, उस समृद्धि का सुख-सञ्चार। 1 कीति, दीप्ति, शोभा थी नचती अरुण किरण सो चारो ओर, सप्त सिंधु के तरल क्णो मे, दल मे, थानद विभोर । द्रम शक्ति रही हा शक्ति, प्रकृति थो पद-तल मे विनम्र विश्रात, कंपती धरणी, उन चरणो से हार प्रतिदिन ही आक्रात । स्वय देव थे हम सब, तो फिर क्यो न विशू खल होती सष्टि अरे अचानक हुई इसी से कडी आपदाओ की वृष्टि, r गया, सभी कुछ गया, मधुरतम सुर बालाओ का शृगार, उपा ज्योत्स्ना सा यौवन स्मित मधुप सदृश निश्चित विहार । चिन्ता ।। ४१९॥