पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४७६

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घनीभूत हो उठे पवन, फिर श्वासो की गति होती रुद्ध, और चेतना थी बिलखाती, दृष्टि विफल होती थी क्रुद्ध । उस विराट आलोडन मे, ग्रह तारा बुद-बुद से लगते । प्रखर प्रलय पावस मे जगमग, ज्योतिरिंगणो से जगते। प्रहर दिवस कितने बीते, अब इसको कौन वता मकता । इनके सूचक उपकरणो का, चिन्ह न कोई पा सस्ता । काला शासन-चक्र मत्यु का कब तक चला न स्मरण रहा महा मत्स्य का एक चपेटा दीन पोत का मरण रहा । किन्तु उसी ने ला टकराया इस उत्तर-गिरि के शिर से देव सृष्टि का ध्वस अचानक श्वास लगा लेने फिर से। चिन्ता ॥४२७॥