पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४७७

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आज अमरता का जीवित हूँ में वह भीषण जर्जर दम्भ, आह सर्ग के प्रथम अक का अधम पान मय सा विकभ " "ओ जीवन की मर मरीचिका, कायरता के अलस विषाद । अरे पुरातन अमृत ! अगतिमय माहमुग्ध जजर यवसाद। मौन । नाश । विध्वस । अधेरा ! शून्य बना जो प्रगट अभाव, वही सत्य है, अरी अमरते ! तुझको यहा कहा अब ठाव । मत्यु, अरी चिर-निद्रे । तेरा अक हिमानी सा शीतल, तू अनत मे ल्हर बनाती काल-जलधि की सी हलचल | प्रमाद वाङ्गमय ॥४२८॥