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महा-नृत्य का विषम सम, अरी अखिल स्पदनो की तू माप तेरी ही विभूति बनती है सृष्टि सदा होकर अभिशाप । अधकार के अट्टहास सी, मुखरिन सतत चिरतन सत्य, छिपी सष्टि के कण-कण मे तू, यह सुन्दर रहस्य है नित्य । क्षुद्र अश है जीवन तेरा व्यक्त नील घन-माला म, मौदामिनी-सधि सा सुन्दर क्षण भर रहा उजाला म ।" पवन पी रहा था शब्दो को निजनता की उम्बडी साम टकराती थी, दीन प्रतिध्वनि चनी हिम गिलो रे पाम । चिन्ता ॥२१॥ २८