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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४८५

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"महानील इस परम व्योम म, अतरिक्ष मे ज्योतिर्मान, ग्रह, नक्षत्र और विद्युत्कण किसका परते से सधान ! छिप जाते हैं और निकलते आपण मे खिचे हुए, तृण, वीरुघ लहलहे हो रहे किसके रस से सिंचे हुए सिर नीचा कर किसकी सत्ता सब करते स्वीकार यहाँ, सदा मौन हो प्रवचन करते जिसका, वह अस्तित्व वहा? हे अनन्त रमणीय | कौन तुम? यह में कैसे कह सकता कैसे हो? क्या हो? इसका तो भार विचार न सह सकता। - हे विराट । हे विश्वदेव । तुम कुछ हो ऐसा हाता भान मद गंभीर धीर स्वर सयुत यही कर रहा सागर गान । १ पाण्टुलिपि म-मन्द्र। प्रसाद वाङ्गमय ॥४३६ ।।