पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४८७

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पार यज्ञ करना निश्चित कर लगे शालियो को चुनन, उधर वन्हि ज्वाला भी अपना लगी धूम पट थी वुनने । शुष्क डालियो से वृक्षो की अग्नि अचियाँ हुई समिद्ध, आहुति को नव धूम गध से नभ कानन हो गया समद्ध । और मोचकर अपने मन मे, जैसे हम हैं बचे हुए, क्या आश्चय और कोई हो जीवन लीला रचे हुए। अग्निहान अवशिष्ट अन्न कुछ वही दूर रख आते थे, होगा इससे तृप्त अपरिचित ममझ सहज सुख पाते थे । थे, दुख का गहन पाठ पढ़ कर अव सहानुभूति समझते नीरवता वी गहराई म मग्न अकेले रहते थे। पाद वाङ्गमय ॥ ४४२।।