पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४८८

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मनन किया करते वे बैठे ज्वलित अग्नि के पास वहा, एक सजीव तपस्या जैसे पतझड मे कर वास रहा। फिर भी धडकन कभी हृदय मे होती, चिंता कभी नवीन, योही लगा बीतने उनका जीवन अस्थिर दिन दिन दीन । प्रश्न उपस्थित नित्य नये थे अधकार की माया मे, ग्ग बदलते जो पल पल मे उस विराट की छाया में। अध प्रस्फुटित उत्तर मिलते प्रकृति सकमक रही समस्त, निज अस्तित्व बना रखने में जीवन आज हुआ था व्यस्त करने। तप मे निरत हुए मनु नियमित- कम लगे अपना विश्व रग मे कमजाल के सून लगे घन हो घिरने । १ पाण्डुलिपि में-एक सजीव तपस्या का मानो पतझड में राज्य रहा । आशा ॥४४३॥