पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

आतप तापित जीवन सुख की शातिमयी छाया के देश, हे अनन्त की गणना, देते तुम क्तिना मधुमय सदेश । चुप होने मे आह शून्यते । तू क्या इतनी चतुर हुई, इद्रजाल जननी ! रजनी तू क्यो अव इतनो मधुर हुई ? "जव कामना सिंधु तट आयी ले सध्या का तारा दीप, फाड सुनहली साडी उसकी तू हँसती क्यो अरी प्रतीप? इस अनत पाले शासन का वह जब उच्छ खल इतिहास, आंसू औ' तम घोल लिख रही तू सहसा परती मदु हास । १ वार्षिक सरस्वती १९२८ में प्रकाशित । प्रसाद वाङ्गमय ।।४४८॥