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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५०२

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. या कि, नव इन्द्र नील लघु शृग फोड कर धधक रही हो कात, एक लघु ज्वालामुखी अचेत माववी रजनी मे अधात । घिर रहे ये धुंघराले बाल अस अवलवित मुख के पास, नील धन शावक से सुकुमार सुवा भरने को विधु के पास। और उस मुख पर वह मुमक्यान। रक्त किसलय पर ले विश्राम अरुण की एक किरण अम्लान अधिक अलमाई हो अभिराम । नित्य यौवन छवि से हो दीप्त विश्व की करण कामना मूर्ति, स्पश के आक्षण से पूण प्रकट करती ज्यो जड म स्फूर्ति । उपा की पहली रेखा वात, माधुरी से भीगी भर मोद, मद भरी जैसे उठे सरज्ज भोर को ताख युति वो गोद । श्रद्धा ॥४५७॥