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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५०४

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पहेली सा जीवन है व्यस्त उसे सुलझाने का अभिमान बताता है विस्मृति का माग चल रहा हूँ बन कर अनजान । भूलता ही जाता दिन रात सजल अभिलापा कलित अतीत, बढ रहा तिमिर गभ मे नित्य दीन जीवन का यह सगीत । ? क्या कहूँ, क्या हूँ मै उद्भ्रात विवर म नील गगन के आज वायु की भटकी एक तरग, शून्यता का उजडा सा राज । एक विस्मृति का स्तूप अचेत, ज्योति का धुंधला सा प्रतिविम्व, और जडता की जोवन राशि सफलता का सकलित विलम्ब । श्रद्धा ॥४५९।।