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एक दिन सहसा सिंधु अपार लगा टकराने नग तल क्षुब्ध, अकेला यह जीवन निरपाय आज तक घूम रहा विश्रब्ध । यहा देखा कुछ बलि का अन भूत हित-रत किसका यह दान । इधर कोई है अभी सजीव, हुआ ऐसा मन म अनुमान । तपस्वी | क्यो इतने हो क्लात ? वेदना का यह कैसा वेग? आह । तुम कितने आधक हताश बताओ यह कैसा उद्वेग । हृदय मे क्या है नही अधीर, लालसा जीवन की निश्शेप ? कर रहा वचित कही न त्याग तुम्हे, मन मे धर सुन्दर वेश । दु ख के डर से तुम अज्ञात जटिलताओ का कर अनुमान, काम से झिझक रह हो आज, भविष्यत् से वन कर अनजान । प्रसाद वाङ्गमय ॥ ४६२॥