पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५०६

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कर रही लीलामय आनन्द महाचिति सजग हुई सी व्यक्त, विश्व का उन्मीलन अभिराम इमी मे सब हाते अनुरक्त । काम मगल से मडित श्रेय सग, इच्छा का है परिणाम, तिरस्कृत कर उसको तुम भूल बनाते हो असफल भवधाम । 'दुख की पिछली रजनी वीच विक्सता सुख का नवल प्रभात, एक परदा यह झोना नील छिपाये है जिसम सुख गात । जिसे तुम समझे हो अभिशाप जगत की ज्वालामो का मूल, ईश का वह रहस्य वरदान कभी मत इसको जामो भूल, श्रद्धा ॥४६३॥