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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५०८

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कहा आगतुक ने सस्नेह- "अरे, तुम इतने हुए अधीर । हार बैठे जीवन का दांव, जीतते मर कर जिसको वीर । तप नही केवल जीवन सत्य करुण यह क्षणिक दीन अवसाद, तरल आकाक्षा से है भरा सो रहा आशा का आह्लाद । प्रकृति के यौवन का शृगार करेंगे कभी न बासी फूल, मिलेंगे वे जाकर अति शीघ्र आह उत्सुक है उनकी धूल । पुरातनता का यह निर्मोक सहन करती न प्रकृति पल एक, नित्य नूतनता का आनंद किये है परिवत्तन म टेक । श्रद्धा ॥४६५॥