पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५१८

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"ओ नील आवरण जगती के दुर्बोच न तू ही है इतना, अवगुठन होता आखो का आलोक रूप बनता जितना।' चल चक्र वरुण का ज्योति भरा व्याकुल तू क्यो देता फेरी? तारो के लुटती है असफलता तेरी। बिखरते हैं नव नील कुज है झीम रहे, कुसुमो की कथा न बद हुई, है अतरिक्ष आमोद भरा हिम कणिका ही मकरद हुई। इस इदीवर से गध भरी युनतो जाली मधु को धारा, मन-मधुकर की अनुराग मयी बन रही मोहिनी सी कारा ! अणुओ को है विश्राम कहाँ यह कृति मय वेग भरा कितना, अविराम नाचता कपन है, उल्लास सजीव हुआ कितना । १ नागरी प्रचारिणी सभा के कोशोत्सव स्मारक सग्रह म आवरण शीपक से सवत १९८५ में सत्रहवें छादपय त प्रकाशित । काम ॥४७५॥