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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५४०

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कहा मनु ने "तुम्हे देया अतिथि | कितनी बार, चिन्तु इतने तो न थे तुम दवे छवि के भार । पूर्व जम कहूँ कि या स्पृहणीय मधुर अतीत, गूंजते जब मन्दिर घन मे वासना के गीत । भूल कर जिस दृश्य को मे बना आज अचेत, वही कुछ सव्रीड, सस्मित कर रहा सक्त । "मैं तुम्हारा हो रहा हूँ" यही सुदृढ विचार, चेतना का परिवि बनता घूम चक्राकार । मधु बरमती विधु किरन है कापती सुकुमार, पवन म है पुलक मथर चल रहा मधु भार । तुम समीप, अधीर इतने आज क्यो हैं प्राण छक रहा है क्सि सुरभि से तृप्त होकर घ्राण ? ? आज क्यो सदेह होता रूठने का व्यथ, क्यो मनाना चाहता सा बन रहा असमथ । धमनियो म वेदना सा रक्त का सचार, हृदय म है कापती धडकन, लिये लघु भार। वासना ।। ४९९॥