सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चेतना रगोन ज्वाला परिधि मे सानन्द, मानती सी दिव्य सुस कुछ गा रही है छद । अग्नि कीट समान जलती है भरी उत्साह, और जीवित है, न छाले हैं न उसमे दाह । कौन हो तुम विश्व माया कुहक सो साकार, प्राण सत्ता के मनोहर मेद सी सुकुमार हृदय जिसकी कात छाया म लिय निश्वाम, थके पथिक समान करता व्यजन ग्लानि विनाश ।" श्याम नभ मे मधु किरन सा फिर वही मदु हास, सिंधु को हिलोर दक्षिण का समीर विलास । कुज म गुजरित कोई मुकुल सा अव्यक्त, लगा कहने अतिथि, मनु थे सुन रहे अनुरक्त- - प्रसाद वागमय ॥५००।