पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५४२

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"यह अतृप्ति अधीर मन को क्षोभयुत उन्माद, सखे । तुमुल तरग सा उच्छ्वासमय सवाद । मत कहो पूछो न कुछ, देखो न कैसी मौन, विमल राका मूर्ति बन कर स्तव्य बैठा कौन । विभव मतवाली प्रकृति का आवरण वह नील, शिथिल है, जिस पर बिग्वरता प्रचुर मगल खील, राशि-राशि नसत पंसुम की अचना अथात विखरती है, तामरस सुन्दर चरण के प्रात।" - मनु निरखने लगे ज्यो-ज्यो यामिनी का रप, वह अनन्त प्रगाढ छाया फैलती अपरूप, बरसता था मदिर कण सा स्वच्छ सतत अनन्त, मिलन का सगीत होने लगा था श्रीमत । वासना ॥५०१॥