पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५४९

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पुलक्ति कदव की माला सी पहना देती हो अतर म, झुक जाती है मन की डाली अपनी फलभरता के डर म । घरदान सदृश हो डाल रही नीली रिनो से वुना हुआ, यह अचल कितना हलवा सा क्तिने सौरभ से सना हुआ। सब अग मोम से बनते हैं कोमलता में बल खाती हूँ, में सिमिट रही सी अपने में परिहास गीत सुन पाती हूँ। स्मित बन जाती है तरल हंसी नयनो मे भर कर बाक्पना । प्रत्यक्ष देखती है सर जो वह बनता जाता है सपना। मेरे सपनो म क्लरव का ससार आख जब खोल रहा, अनुराग समीरो पर तिरता था इतराता सा ढोल रहा। प्रमाद वाङ्गमय ।।५०८॥ -