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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५५०

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अभिलाषा अपने यौवन म उठती उस सुख के स्वागत को, जीवन भर के बल वैभव से सत्कृत करती दुरागत को। - किरनो का रज्जु समेट लिया जिसका अवलवन ले चढतो, रस के निझर में धंस कर मै आनद शिखर के प्रति वढती । छूने मे हिचक, देखने म पलक् आखो पर झुक्ती हैं, क्लरव परिहास भरी गूंजें अधरा पर सहसा स्कती हैं। समेत कर रही रोगोली चुपचाप बरजती बडी रही, भाषा बन भौहो थी बाली रेसा सो भ्रम म पड़ी रही। तुम कौन हृदय को परवशता? सारी स्वतत्रता छोन रही, स्वच्छद सुमन जो मिल रहे जीवन वन से हो वीन रहो !" एज्जा ॥५०९॥ ३३