पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५६

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नही वि गग और विरक्त होता है और चिति केन्द्रो का सघष अनवरत हो जाता है। चेतनता का भौतिक विभाग, कर जग को बाँट दिया विराग चिति का स्वस्प यह नित्य जगत वह प बदलता है शत शत कण विरह मिलनमय नृत्य निरत उत्लासपूण आनन्द सतत तल्लीनपूण है एक राग झकृत हे केवल 'जाग जाग' (दशन) चिति केन्द्रो मे जो सघष चला करता है द्वयता का जो भाव सदा मन मै भरता है (सघप) पदाथ से चेतना के विकास अथवा चेतन से पदाथ के उन्मीलन इन दो मे किसी भी सरणि से चलने पर विश्व के रपकतत्व की सिद्धि है । अपनी साद्यन्तता में भी आदि अनन्त रूप भी मासमान वैचित्रय से भरा परस्पर विरोधि समागम से प्रस्तुत और गुणात्मक परिवतनो मे रयात, यह विश्व एक रूपक वृत्ति से स्फुरित है-'लीला का स्पन्दित आह्लाद है "चितमय' का 'प्रभापु ज' 'प्रसाद' अथवा 'प्रभापु ज चितिमय' की प्रसनता किंवा 'प्रसाद' है।' विश्वगत घटना प्रवाह मे घटको का आविर्भाव तिरोभाव छायामय और चलित चित्रो के सदृश-मरूप है जो एक रूपकीय सत्ता की परिणति घोषित करते हैं अथवा चेतन जिसकी प्राविधिक आस्या 'नतित नटेश' है 'परिवत्ता के पट' उठा पदाथ एव उसके सृष्टि-महार को गति चैतन्य देता 'नृत्य निरत' है। विश्व २ घटक-पदाथतत्त्व ऐसी रूपकीय सहति मे विरोधिसमागम- पूर्वक स्वत मच रुप हो परिणतिया अथवा गुणात्मक परिवत्तन प्रस्तुत करते ह । इनमे प्रत्यक्ष घटनासत्य के 'स्पग्रहण की चेष्टा अथवा कायता सचिराम और क्षयिणी होकर भी अपनी कायसत्ता की अविरामता और उसके अक्षय भाव का परिचय देती है- कार्यता क्षयिणीचात्र पुन कायश्च अक्षयम् (स्पन्दसन्दोह) १ जगचित्र रामलिख्य स्वेच्छातूलिक्यात्मनि स्वयमेव गमालाप सन्तुष्टा परमाद्भुतम (परावासना) भारायत जगच्चित्र सकल्पादव सवस्व (त्रिपुरा रहस्य) जगनाट्यप्रवत्तयिता सुप्ते जगति जागत्य (प्रत्यभिमा दीया) विसृष्टा गेप मद्वाज गभ परोक्य नाटक प्रस्ताव्यहरमहतुत्वत्त पोप मवि क्षम (स्तवरितार्माण) प्राक्रथन "६५)