पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५५३

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फूगे की कोमल पपडिया विखरें जिसके अभिनदन मे, मकरद मिलाती हो अपना स्वागत के कुकुम चदन म कोमल किसलय ममर रव से जिससा जय घाप सुनाते हो, जिसम दुस सुख मिलकर मन के उत्सव आनद मनाते हो। उज्ज्वल वरदान चेतना का सौदय्य जिसे सब कहते हैं, जिसम अनत अभिलापा के सपने सब जगते रहते हैं। मैं उसी चपल की धानी हूँ गौरव महिमा हूँ सिखलाती, ठोकर जो लगने वाली है उसको धीरे से समझाती। मैं देव सृष्टि की रति रानी निज पचाबण से वचित हो, बन आवजना मूर्ति दीना अपनी अतृप्ति सी सचित हो। प्रसाद वाङ्गमय १५१२॥