नट की रगचेष्टा अभिनय पदवाच्य है । छायामय चलचिनो मे पूवक्षण सम्पन्न घटनाओ के विम्वानुवार एक आवरण भित्ति पर उदयास्त पाते है। किन्तु इस परोक्ष अथवा अपरोक्ष घटित अभिनय मे नट के वास्तविक स्वरूप का अवगृहन और अयरूप की विधृति ही रूपक वृत्ति के मन प्राण-देह हैं । स्थूल कोपो के अन्वेपण करते करते जो विलक्षण प्रतीतिया होती हैं वे अन्तराल बाहुत्य का कथन करती हैं। उनमे भी चल रहे नटन-नत्तन के वैद्युतिक-तरग स्तर तक ही हम यन्त्र साधन से पहुंच पाये है-आगे क्तिना पथ शेप है ? कौन जाने ? किन्तु विस्मय तब होता है जब प्रगति और विकास के पक्षवर इसी विन्दु पर 'इदमित्यम' बोल देते हैं । यहा प्रगति रुकती है और अगति उपस्थित होती है। पदाथ सहति मे हेतुता कहने से यह अभिप्राय भी लिया जाता है वि हेतु पदाथगत न हो उनके परस्पर मेलन से विगलित भेद-सस्कार दशा के प्रति उन्मुखी प्रक्रिया मे, उसकी एकीभूत अवस्था किंवा अद्वयी भूत भाव मे परनिष्ठित है सुतराम् पदाथ या भूत तथता तो जडात्मिका हुई, और उसका मेलन एक चैतन्यमयी क्रिया हुई। सहति अथवा मेलन उन्मुखी भाव मे होता है जिसका मूल एक सकल्प विन्दु मे निहित रहता है। विकरपात्मक विमुखी भाव मे मैलन सभव नही । मेलन या उन्मुखी भाव के चेतन क्रिया की परिणति म पदाथ सहति किंवा विरोधिसमागम स्फूत है और गुणा के गुणनफल की भी यह उद्गम भूमि होगी जिनमे गुणात्मक परिवत्तन सभूत है। निष्क्पत , परस्पर उन्मुखीभाव की गाढता मे एकीभूतावस्था हेतुता की जननी है न कि निमुखी विकल्पो की वियुक्त असहत और अनेकात्म जडमानता । हेतुता कहते ही उसके अभिमानी हेतु का प्रसग आ जाता है । यत यन्त्रारुढ होकर हम हेतु सरणि के पिसी छोर पर नहीं पहुंच पाये मत अहेतु की वास्तविक्ता या उसके हेतुभूत रहने को कथा को एक कल्पना या मिथ्या-अनुमान बता देना कोई विस्मय को बात नही और फिर गुणमयी प्रकृति की कठिन धातु को पिघला कर एक नए साचे म ढालने की बात तो और भी उपहास की वस्तु होगी। फिर, वैसे हेतुभूत पदाथतत्व की सहति का यह प्रतिक्षण उदयास्त भी तो रूपक ही है । सुतराम रूपी का निजम्प या स्वरूप कुछ और ही होगा जिसके भगिमा को परिणतियो से यह विश्व रूपक प्रस्तावित प्रसाद वाङ्गमय ॥६६॥
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