पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५६३

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क्या योई इसका उपाय ही नही वि इसको साऊं? बहुत दिनो पर एक बार ता सुख को वीन बजाऊँ।' उसके, आकुलि ने तब कहा, 'देखते नही साथ में एक मृदुलता की, ममता की छाया रहती हंस के। दूर भगाती अधवार को वह आलोक किरन सी, मेरी माया विध जाती है जिससे हलके घन सी। तो भी चलो आज कुछ करके तव मै स्वस्थ या जा भी आवेंगे मुग दुख उनको सहज रहूंगा, सहूंगा।' योही दोनो कर विचार उस कुज जहा सोचते थे मनु बैठे मन से ध्यान आए, लगाये। प्रसाद वाङ्गमय ॥५२२॥