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यज्ञ समाप्त हो चुका तो भी धधक रही थी ज्वाला, दारण दृश्य । रुधिर के छोटे अस्थि खड की माला। वेदी को निमम प्रसनता, कातर वाणी, मिलकर वातावरण बना या कोई कुत्सित पशु की प्राणी। भी आगे, सोम पान भी भरा, धरा था पुरोडाश श्रद्धा वहा न थी मनु के तव सुप्त भाव सब जागे। "जिमका था उत्लाम निरखता वही अलग यह सब क्यो फिर ? दृप्त वासना लगी गरजने जा बैठी, ऐंठी। प्रमाद वाङ्गमय ॥५२६ ॥ -