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जिसमे जीवन का सचित सुख सुन्दर मूत्त बना है। हृदय खोल कर कैसे उसको हूँ कि वह अपना है? वही प्रसन नहीं रहम्य कुछ इसम सुनिहित होगा, आज वही पशु मर पर भी क्या बाधक सुख मे होगा? श्रद्धा रूठ गयी तो फिर क्या उसे मनाना होगा, या वह स्वय मान जायेगी, क्सि पथ जाना होगा?" लगे मनु पुरोडाश के साथ सोम का पान लगे प्राण के रिक्त अश को मादकता करने, से भरने। रेखा, सध्या की धूसर छाया मे शैल शृग को अकित थी दिगत अबर मे लिये मलिन शशि-लेखा। कम ॥५२७॥