पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५६७

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श्रद्धा अपनी शयन गुहा मे दुवो लौट कर आयी, एक विरक्ति बोझ सी ढोती मन हो मन विलग्खायी। सूखी काष्ठ सन्धि मे पतली अनल शिखा जलती थी, उस धुधले गृह मे आभा से तामस को छलती थी। के झोंके, किंतु कभी बुझ जाती पाकर शीत पवन कभी उसी से जल उठती तब कौन उसे फिर रोके। बिछा के चामायनी पडी थी अपना कोमल चम श्रम मानो विश्राम कर रहा मृदु आलस को पाके। धीरे धीरे जगत चल रहा अपने उस ऋजु धीरे धीरे खिलते तारे मृग जुतते विधु रथ मे। पथ में, प्रसाद वाङ्गमय ॥५२८॥