पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५६८

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अंचल लटकाती निशीथिनी अपना ज्योत्स्ना-शाली, जिसकी छाया म सुख पावे सृष्टि वेदना वाली। वाला, उच्च शैल शिखरो पर हंसती प्रकृति चचला धवल हंसी विवराती अपनी फैला मधुर उजाला। जीवन को उद्दाम लालसा उलझी जिससे एक तीव्र उमाद और मन मथने वालो व्रीडा, पीडा, मधुर विरक्ति भरी आकुलता, धिरती हृदय गगन अतर्दाह स्नेह का तब भी होता था उस मन मे। À वे असहाय नयन थे खुलते- मुंदते भीषणता आज स्नेह का पात्र खडा था, स्पष्ट कुटिल क्टुता मे। कर्म ॥५२९॥