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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५६९

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वह "क्तिना दुख जिसे मैं चाहूं कुछ और बना हो, मेरा मानस चित्र खीचना सुदर सपना हो। जाग उठी है दारण ज्वाला अनत कैसे बुझे कौन कह देगा मधुवन मे इस नीरव निजन मे। बसेरा, यह अनत अवकाश नीड सा जिसका व्यथित वही वेदना सजग पलक म भर कर अलस बेरा। काप रहे है चरण पवन के विस्तृत नीरवता सी. घुली जा रही है दिशि दिगिकी नभ मे मलिन उदासी। प्रसाद वाङ्गमय ॥ ५३०॥