पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५७०

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24 अतरतम की प्यास, विकलता से लिपटी बढती युग युग की असफलता का अवलवन ले चढती है। विषम से, विश्व विपुल आतक अस्त है अपने ताप फैल रही है धनी नीलिमा अतर्दाह परम 'उद्वेरित है उदधि, लहरिया लोट रही व्याकुल सी, चक्रवाल को धुंधली रेखा मानो जाती झुलसी। सघन घूम कुण्डल मे कैसी नाच रही यह ज्वाला तिमिर फणी पहने हैं मानो अपने मणि की माला। जगतीतल का मारा बदन यह विषमयी चुभने वाला अतरग अति दारुण विषमता, निर्ममता। १ माधुरी में विषपान शीपक स 'श्रमण से ये तारे" पयन्त प्रकाशित । बम ॥४३१॥