पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

और प्रस्तुत होता है। उस सहति में उन्मीलित उसके निज का क्या वह स्वरूप नहीं जिसके अश्यवीभूत रह समस्त तत्व समुदाय स्पन्दित है और जो अनेक न होकर ही रूपकोचित नाना ग्राह्य-ग्राहक भूमिकाधि- वासित अगण्य रूप सस्करणो मे परिच्छिन्नत्वेन भासमान है। यह पदायगत सहति विक्रम भावान्तर मे उदयार्थी हो आविर्भावपदवाच्य होगा और पदार्थों का प्रभृतित्व विलयन तिरोभाव होगा फिर यह तो हेतु नही परिणाम है । स्मृति विस्मृति और उसकी सन्ध्या का झिलमिल प्रकाश है जिसमे चैतन्यमयी सत्ता अपना स्वरूपगोपन कर रूपक- जीवन बनी है। स्वरूप की विस्मति और घृतरूप मे यथामभव गाढतम निष्ठा, अभिनय की प्रतिज्ञा है । अ-हेतु की लीला अथवा सचरणस्प हेतु का परिणाम विश्वाकार है। जैसे शून्य के अभाव मे, उसे आधार माने विना अको की दूरी ससझना सम्भव नही उसी प्रकार हेतु निषेध की जो अहेतुकी दशा है वही सर्वाधार और वही पदाथादय और तत्व सहत्ति को भूमि हो सकती है। अहेतु का ही स्फुरण लोला है। ( त्वमेव स्वान्मान परिणमायितु विश्ववपुषा)। बहुधा कामायनी मे प्रत्यभिज्ञा अथवा निक-दशन की विवृति बतायी जाती है । शेवागम की बातें कही जाती है। जो विक अथवा प्रत्यभिज्ञा को जो एक सम्प्रदायपिटक मान बैठे है, वे कदाचित उमकी मौलिक दृष्टि एव प्रयोजनीयता के प्रति न्याय से विमुख है। शैवागमा का विस्तार विधा प्रस्थित होकर, भेद भेदाभेद अभेदपयन्त स्फीत है। सुतराम् बहुप्रस्थानोय, अनेक-दृष्टि अवलोक्ति एव आधारभेद से भिन्न रूपाव- स्थानीय व्यापकम्प शवागम शब्द का व्यवहार कामायनी के लिये कहाँ तक उचित होगा, उदाहरणरूप जिसके अत्तमुक्त वीरशैव मत स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर को ही त्रिपुर रहता है जो अपेक्षाकृत स्यूल है। वीरशैव मत समाधि को सामरस्य मानता है जब कि अभेद धारा मे सामरस्य, निर्विकल्प-सविकल्प आदि समस्त दशाओ को क्रोडोकत करते सवथा विलक्षण है यही नहीं निक माग मे तो लोकानन्द और समाधि सुख भिन्न अथ नही रखते-'लोकानन्द समाधिसुख' शिवसून १-१०) । यद्यपि कुछ स्थत कामायनो मे ऐसे पाये जाते हैं जिनम प्रत्यभिज्ञा के सिद्धान्तो की छवि मिलती है । यथा-'कर रही लीलामय आनद',आदि । किन्तु इन्हे ही अलमित्ति मान बैठना सगत न होगा। वस्तुत प्रत्यभिना का भाव रूप क्या है, और उस दशन को तत्वसत्ता को मिस रूप प्रकार म प्रसाद भारती ग्रहण करती है, जिसमे एक शाश्वत चिन्तन धारा और - प्राक्कथन ॥६७