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जीवन के वे निष्ठुर दंशन जिनकी आतुर पीडा, कलुप चक्र सी नाच रही है बन आंखो की क्रीडा। स्खलन चेतना के कौशल का भूल जिसे करते एक विन्दु, जिसम विपाद के उमडे रहते है। आह वही अपराध, जगत की दुबलता वी भाया, धरणी की वर्जित मादक्त्ता, सचित तम की छाया। नील गरल से भरा हुआ यह चद्र कपाल लिये हो, इन्ही निमीलित तारामो म क्तिनी शाति पिये हो। फिर से, अखिल विश्व का विष पीते हो सष्टि जियेगी कहो अमर शीतलता इतनी आती तुम्हें किधर से? प्रमाद वाङ्गमय ॥५३२॥