पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५७२

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मारे, अचल अनत नाल लहरा पर आसन देव ! कौन तुम झरते तन से श्रमकण से ये तारे। द इन चरणा म कम कुसुम को अजलि वे सकते, चल आ रहे छायापथ मे लोक पथिक जो यकते। किन्तु कहा वह दुलभ उनको स्वीकृति मिली तुम्हारी । लौटाये जाते वे असफल जेसे नित्य भिखारी। की माया, प्रखर विनाशशील नत्तन मे विपुल विश्व क्षण-क्षण होती प्रकट नवीना बन कर उसकी काया। 7 सदा पूर्णता पाने को सब भूल किया करते क्या जीवन मे यौवन लाने को जो जो कर मरते क्या ? १ विजय में प्रकाशित । कर्म ॥५३३॥