पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

1 सुस ममीर पाकर, चाहे हो वह एकात बढती है सीमा ससति की बन मानवता तुम्हारा धारा।" हृदय हो रहा था उत्तेजित बातें कहते श्रद्धा के थे अवर सूखते मन की ज्वाला कहते सहते । वोले- उधर सोम का पान लिये मनु समय देखकर "श्रद्धे। पी लो इसे बुद्धि के बधन को जो खोले। वही करूँगा जो कहती हो सत्य, अवेला सुख क्या ।' यह मनुहार । स्वेगा प्याला पीने से फिर मुख क्या? प्रसाद वाङ्गमय ॥५४४॥