पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५९१

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क्तिनी मीठी अभिलापार्य उसम चुपो से रही घूम। कितने मगल के मधुर गान उसके काना को रहे च्म । मनु देख रहे थे चक्ति नया यह गृह-लक्ष्मी का गृह-विधान ! पर कुछ अच्छा सा नही लगा 'यह क्या? किसका सुख साभिमान?' चुप थे पर श्रद्धा ही बोली "देखो यह तो बन गया नीड, पर इसमे कलरव करने को आकुल न हो रही अभी भीड । तुम दूर चले जाते हो जब तब रेकर तकली यहा बैठ, म उसे फिराती रहती हूँ अपनी निजनता वीच पैठ । मै बैठी गाती हैं तकली के प्रतिवत्तन मे स्वर विभोर- 'चल रो तकली धीरे धीरे प्रिय गये सेलने को अहेर ।' प्रसाद वाङ्गमय ॥ ५६०१३