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जीवन का कोमल ततु बढे तेरी ही मजुलता समान, चिर नग्न प्राण उनमे लिपटें सुदरता का कुछ बढे मान । किरनो सो तू बुन दे उज्ज्वल मेरे मधु जीवन का प्रभात । जिसमे निवसना प्रकृति सरल ढक ले प्रकाश से नवल गात। वासना भरी उन आखो पर आवरण डाल दे कातिमान, जिसमे सौदय्य निखर आवे लतिका मे फुल्ल कुसुम समान । अब वह आगतुक गुफा बीच पशु सा न रहे निवसन नग्न, अपने अभाव की जडता मे वह रह न सकेगा कभी मग्न । सूना न रहेगा यह मेरा लघु विश्व कभी जब रहोगे न, में उसके लिये बिछाऊंगी फूलो के रस का मृदुल फेन । ईर्ष्या ॥५६१॥