पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६००

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"जीवन का लेकर नव विचार जव चला द्वद्व था असुरो मे प्राणो की पूजा का प्रचार उस ओर आत्म विश्वास निरत सुर वर्ग कह रहा था पुकार- 'मैं स्वय सतत आराध्य आत्म मगल उपासना मे विभोर उरलास शील में शक्ति केन्द्र, किसकी खोजूं फिर शरण और आनद उच्छलित शक्ति स्रोत जीवन विकास वैचित्र्य भरा अपना नव नव निर्माण किये रखता यह विश्व सदैव हरा" प्राणो के सुख साधन मे ही, सलग्न असुर करते सुधार नियमो मे बंधते दुर्निवार । था एक पूजता देह दोन दूसरा अपूर्ण अहता मे अपने को समझ रहा प्रवीण दोनो का हठ था दुर्निवार, दोनो ही थे विश्वास हीन फिर क्यो न तक को शस्त्रो से वे सिद्ध करें क्यो हो न युद्ध उनका सघप चला अशात वे भाव रहे अब तक विरुद्ध मुझमे ममत्व मय आत्म मोह स्वातत्र्य मयी उच्छृ खलता हो पलय भीत तन रक्षा मे पूजन करने की व्याकुलता वह पूर्व द्वद्व परिवर्तित हो मुयको बना रहा अधिक दोन सचमुच मै हूँ श्रद्धा विहीन।" इडा ॥ ५७१॥ F