पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६०२

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वह प्रेम न रह जाये पुनीत अपने स्वार्थों से आवृत हो मगल रहस्य सकुचे सभीत सारी ससति हो विरह भरी, गाते ही बीतें करुण गीत आकाक्षा जलनिधि की सीमा हो क्षितिज निराशा सदा रक्त तुम राग विराग करो सबसे अपने को कर शतश विभक्त मस्तिष्क हृदय के हो विरुद्ध, दोनो मे हो सद्भाव नही वह चलने को जब कहे कही तव हृदय विकल चल जाय कही रोकर बीतें सब वत्तमान क्षण सुदर सपना हो अतीत पेंगो मे झले हार जीत। सकुचित असीम अमोघ शक्ति जीवन को बाधा भय पथ पर ले चले भेद से भरी भक्ति या कभी अपूण अहता म हो रागमयी सी महासक्ति' व्यापरता नियति प्रेरणा बन अपनी सीमा मे रहे बद सवज्ञ ज्ञान का क्षुद्र अश विद्या वन पर कुछ रचे छद कतृत्व सक्ल बन कर आवे नश्वर छाया सी ललित कला नित्यता विभाजित हो पल पल मे काल निरतर चले ढला तुम समझ न मको, बुराई से शुभ इच्छा की है बड़ी शक्ति हो विफल तक से भरी यक्ति । १ आदिसस्करण एव पाण्डुलिपि उभय में इस स्थल पर यही ह, महाशक्ति नही जसा कतिपय पिछले पुनमुद्रणो में त्रुटिवश छपता आया है । इडा ॥५७५॥